हिंदी विरोध की राजनीति


राजएक्सप्रेस, भोपाल। Anti Hindi Politics मेघालय विधानसभा में पिछले माह बजट सत्र की शुरुआत करते हुए राज्यपाल द्वारा हिंदी में दिया गया अभिभाषण विवाद की जड़ बन गया है। राज्य में बजट सत्र हालांकि खत्म हो चुका है, मगर असंतोष अब भी बरकरार है। जो भी हो देश के एक राज्य में हिंदी के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार कतई ठीक नहीं है। हिंदी को सर्व स्वीकार्यता दिलाने में यह बड़ी बाधा है। इस बात को राजनीतिक स्तर पर बैठे उन सभी को समझनी होगी, जो अंग्रेजी का मान बढ़ाने में जुटे हैं।

राजनीति की आपाधापी के बीच कुछ घटनाएं महत्वपूर्ण होते हुए भी हमारा ध्यान नहीं खींच पातीं। हाल के दिनों में ऐसी ही दो घटनाएं रहीं। जिनकी तरफ कायदे से उन लोगों का तो ध्यान जाना ही चाहिए था, जो अपनी माटी और अपनी भाषा की नींव पर ही राजनीतिक ही नहीं सांस्कृतिक विकास चाहते हैं, लेकिन दुर्भाग्यवश इन दोनों घटनाओं की तरफ ध्यान नहीं दिया गया। जबकि दोनों का रिश्ता राष्ट्रीय अस्मिता के साथ ही भारतीय सोच से जुड़ा हुआ है। पिछले माह 17 मार्च को मेघालय विधानसभा के मौजूदा बजट सत्र की शुरुआत हुई।

जैसा कि संसदीय लोकतंत्र की रवायत है। बजट सत्र की शुरुआत राज्यपाल के अभिभाषण से होती है, वैसा ही मेघालय में हुआ। लेकिन साठ सदस्यीय विधानसभा की विपक्षी कांग्रेस के सभी 21 विधायकों ने बजट सत्र का बहिष्कार कर दिया। आमतौर पर विपक्ष बजट सत्र के बहिष्कार के लिए सरकारी पक्ष द्वारा गलतबयानी या किसी खास इलाके में विकास को तवज्जो न देने जैसे मुद्दे पर करता है, लेकिन मेघालय में ऐसे किसी मुद्दे पर कांग्रेस ने अभिभाषण का विरोध नहीं किया।विपक्ष की नाराजगी की वजह रही राज्यपाल गंगा प्रसाद द्वारा हिंदी में अभिभाषण पढ़ना। संविधान देश की राजभाषा के तौर पर हिंदी को मान्यता देता है तो देता रहे, जिस हिंदी को देश की संवैधानिक राजभाषा बनवाने के लिए महात्मा गांधी, काका कालेलकर, पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे नेताओं ने योगदान दिया हो, उसमें मेघालय के राज्यपाल ने भाषण देकर जैसे गुनाह कर दिया। विपक्ष का आरोप था कि मेघालय के 42 साल के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है, जब राज्यपाल ने अंग्रेजी की बजाय हिंदी में भाषण दिया है। याद कीजिए यूपीए की दूसरी सरकार के शपथ ग्रहण को। इसी मेघालय राज्य की सांसद और मौजूदा सत्ताधारी दल नेशनलिस्ट पीपुल्स पार्टी की नेता अगाथा संगमा ने सबसे ज्यादा तालियां बटोरी थीं।

इसकी वजह थी उनका स्पष्ट और साफ हिंदी में शपथ लेना। तब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी तक ने ताली बजाकर अगाथा का उत्साह बढ़ाया था। लेकिन उन्हीं के विधायकों ने हिंदी में अभिभाषण देते राज्यपाल का विरोध किया। कांग्रेस का तर्क था कि राज्य के 42 साल के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है, जब राज्यपाल ने अंग्रेजी की बजाय हिंदी में भाषण दिया है। वैसे यहां जानकारी के लिए बता देना चाहिए कि मेघालय की राजभाषा यहां की मूल भाषाएं खासी और गारो है। साथ में संपर्क के लिए अंग्रेजी को भी यह दर्जा दिया गया है।
कांग्रेस के विधायक तर्क दे सकते हैं कि चूंकि राज्य की राजभाषा अंग्रेजी है, इसलिए उसी में भाषण दिया जाना चाहिए। लेकिन उन्हें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि देश की राजभाषा के तौर पर हिंदी को भी स्वीकार किया गया है। जिस उत्तर पूर्व में मेघालय आता है, वहां के लोगों की देश की राजधानी दिल्ली में भरमार है। तमाम शो रूम से लेकर तमाम जगहों पर वहां के युवक-युवतियां नौकरी कर रहे हैं। दिल्ली और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय समेत तमाम शैक्षिक संस्थाओं में पढ़ रहे हैं और उनकी हिंदी भी अच्छी है, फिर वहां के विधायक राज्यपाल के हिंदी अभिभाषण को स्वीकार क्यों नहीं कर पाते।

लेकिन जब उनके ही बीच का कोई व्यक्ति उत्तर भारत में हिंदी बोलने लगता है तो तालियां बजाकर उसकी हौसला अफजाई की जाती है। मेघालय की इस घटना के ठीक एक हफ्ते पहले नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रतिनिधि सभा ने हिंदी और भारतीय भाषाओं के विकास को लेकर प्रस्ताव पास किया। इस प्रस्ताव में संघ ने कहा, देश में प्रचलित विविध भाषाएं व बोलियां हमारी संस्कृति, उदात्त परंपराओं, उत्कृष्ट ज्ञान एवं विपुल साहित्य को अक्षुण्ण बनाए रखने के साथ ही वैचारिक नवसृजन हेतु भी परम आवश्यक हैं।

विविध भाषाओं में उपलब्ध लिखित साहित्य की अपेक्षा कई गुना अधिक ज्ञान गीतों, लोकोक्तियों तथा लोक कथाओं आदि की मौखिक परंपरा के रूप में होता है। इस प्रस्ताव में कहा गया है, आज विविध भारतीय भाषाओं एवं बोलियों के चलन तथा उपयोग में आ रही कमी, उनके शब्दों का विलोपन और विदेशी भाषाओं के शब्दों से प्रतिस्थापन एक गंभीर चुनौती बन कर उभर रहा है। आज अनेक भाषाएं एवं बोलियां विलुप्त हो चुकी हैं और कई अन्य का अस्तित्व संकट में है।

अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा का यह मानना है कि देश की विविध भाषाओं तथा बोलियों के संरक्षण और संवर्धन के लिए सरकारों, अन्य नीति निर्धारकों और स्वैच्छिक संगठनों सहित समस्त समाज को सभी संभव प्रयास करने चाहिए। पता नहीं, मेघालय के विपक्षी विधायकों को इस प्रस्ताव की जानकारी थी या नहीं, लेकिन उन्होंने राज्यपाल के हिंदी अभिभाषण को संघ और भारतीय जनता पार्टी से जरूर जोड़ दिया। उनका आरोप था कि एक भाषा और एक संस्कति की अवधारणा वाली केंद्र सरकार के इशारे पर ऐसा हो रहा है।

पता नहीं, उन विधायकों को यह पता है कि नहीं, आजादी के तुरंत बाद जब बीबीसी ने गांधी से प्रतिक्रिया मांगी थी तो उन्होंने कहा था, पूरी दुनिया से कह दो गांधी अंग्रेजी नहीं जानता। दुर्भाग्य यह है कि गांधी के इस संदेश को उनकी ही कांग्रेस ने नहीं सुना, जिसका असर यह हो रहा है कि हिंदी में अभिभाषण को भी सांप्रदायिकता और देश विरोधी गतिविधि से जोड़कर देखा जाने लगा है। अब मुद्दा यह है कि सरकारों के भरोसे हिंदी का विकास और विस्तार सोचने वालों को अब तो मान ही लेना चाहिए कि राजनीति और सत्ता से हिंदी का भला नहीं हो सकता।

हिंदी एक ऐसी सूली पर चढ़ा दी गई है, जहां उसे रहना तो अंग्रेजी की अनुगामी ही है। आत्मदैन्य से घिरा हिंदी समाज खुद ही भाषा की दुर्गति के लिए जिम्मेदार है। हिंदी को लेकर अब न केवल भरोसा टूटा है, बल्कि हमारा आत्मविश्वास भी खत्म हो चुका है। यह आत्मविश्वास कई स्तरों पर खंडित हुआ है। हमें और हमारी आने वाली पीढ़ियों को यह बता दिया गया है कि अंग्रेजी के बिना उनका कोई भविष्य नहीं है। हमारी सबसे बड़ी अदालत भी इस देश के जन की भाषा को न तो समझती है और न ही बोलती भी है।

ऐसे हालात में केवल मनोरंजन और वोट मांगने की भाषा भर रह गई हिंदी से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं? हमारा समूचा राजनीतिक, प्रशासनिक और न्यायिक तंत्र अंग्रेजी में ही सोचता, बोलता और व्यवहार करता है। ऐसे तंत्र में हमारे भाषाई समाज के प्रति संवेदना कैसे हो सकती है? उनकी नजर में तो हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएं एक वर्नाक्यूलर भाषाएं हैं।

यह राज-काज की भाषा नहीं है। कितना आश्चर्य है कि जिन भाषाओं के सहारे हमने अपनी आजादी की जंग लड़ी, स्वराज और सुराज के सपने बुने, जो केवल हमारे सपनों एवं अपनों ही नहीं, अपितु आकांक्षाओं से लेकर आर्तनाद की भाषाएं हैं, उन्हें हम भुलाकर अंग्रेजी के मोहपाश से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। मेघालय में भी यही हुआ है।
 
उमेश चतुर्वेदी (वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार)

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